पिछले दशहरे की बात है। हर साल की तरह विजय दशमी को सच्चे और अच्छे मित्रों की एक लघु मण्डली ने घर पर धावा बोला। उनके सौहार्द आगमन की हमें पूर्व आशंका थी। ऐसे में हमने खुद को उनसे मुकाबले के लिए तैयार कर लिया था। स्वागत के लिए चाय के साथ हैसियत के अनुरूप हल्के फुल्के नाश्ते का प्रबंध भी किया। आते ही की गई जलसेवा का जिक्र करना थोडी ओछी बात कहलाएगी, इसलिए हम इसे संदर्भ से बाहर का रास्ता दिखा रहे हैं।
आज फिर उसी सालाना पुनीत पर्व से पाला पड़ा है इसलिए बात को घुमावदार रास्ते पर धकियाने के बजाय हम सीधी-सट्ट मूल जड़ को उखाड़ते हैं। मित्रों के आने का उद्देश्य स्पष्ट था। वो इससे पहले भी कई मर्तबा हमें रावण की अंत्येष्टि में शरीक कराने के असफल प्रयास कर चुके थे। संयोग कह लें या फिर हमारी डीठता कि उन्हें हर बार मुंह की खानी पडी। बार-बार नाकामी हाथ लगने के बावजूद प्रयास का मार्ग नहीं छोडने का कारण हम आज तक नहीं समझ पाए। उन्होंने चलने की जिद में सौगंधों का तड़का देने में भी कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी।
अजीब सी कोशिश के इस दंगल में कौन हारा....कौन जीता...? हमें आज तक समझ नहीं आया लेकिन दांव-पेंच का यह अनौखा खेल पिछले कई वर्षों से अनवरत जारी है।
वो आते हैं। रामा-कृष्णा होती है। अतिथि देवो भव: की पुरातन संस्कृति के अनुगामी होने के कारण हम हैसियत के अनुरूप आवभगत करते हैं। चाय की चुस्की के साथ वे संयुक्त स्वर में रावण दहन देखने का दुराग्रह करते हैं और प्रत्युत्तर में हम जुबान से ज्यादा सिर हिलाकर दो टूक मना कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि मेरे सच्चे और अच्छे मित्र मनाही के तत्काल बाद प्रस्थान कर जाते हैं या फिर बुरा मान जाते हैं। ना वे मु़ंह सिकोडते हैं और ना ही अपना सा मुंह लेकर बाहर का रास्ता नापते हैं। यह परिपाटी अब भी जारी है।
हमें रावण की अंत्येष्टि उर्फ दहन में जाना कतई नहीं सुहाता। इसके पीछे हमारा कोई दुराभाव नहीं, बल्कि तार्किक वजह छिपी है।
हमें स्वीकार है कि प्रभु श्री राम ने आतंक से सदात्माओं को कष्ट पहुंचाने वाले दुरात्मा लंकापति का वध किया था। अग्नि बाण उस वक्त का अमोघ अस्त्र रहा होगा। उसी बाण से नाभि के अमृत कुण्ड को जलाकर प्रभु ने रावण जैसी बुराई को धराशायी कर दिया। तभी से हम रावण को जलाने की लकीर पीटते चले आ रहे हैं। मगर क्यों और कब तक? आदिकाल से चली आ रही यह परिपाटी क्या अनंत तक जारी रहेगी?
तत्समय की उस बडी बुराई को राम जी ने समाप्त कर दिया। बहुत अच्छी बात है। लेकिन साल-दर-साल रावण के पुतला दहन पर अरबों-खरबों रुपए की इस फिजूलखर्ची का अब औचित्य क्या है? प्रदूषण बढता है, सो अलग। मेरे मन में एक प्रश्न काफी समय से उत्तर की प्रतीक्षा में है कि प्रभु श्री राम ने तो उस वक्त पनपी हुई बुराई को खत्म किया था लेकिन तब से आज तक हमारा समाज हर साल बुराई को समाप्त करने के लिए उसे पैदा क्यों करता है? रावण के पुतला निर्माण और दहन के पीछे क्या मकसद है? इससे भी बडा प्रश्न यह है कि हममें से राम कितने हैं? क्योंकि रावण के खात्मे का हक तो सिर्फ राम को ही है। हम क्यों नहीं सोचते कि यदि धू धू करते रावण ने हमसे एक बार भी पूछ लिया कि आपमें से राम कितने हैं तो हम क्या जबाव देंगे?
शायद मुझे इसी भय के कारण रावण दहन देखने में रुचि नहीं है। क्योंकि मैं राम हो ही नहीं सकता। जब मैं राम नहीं हूं तो मुझे रावण को जलाने का अधिकार कैसे मिल सकता है? दूसरी बात यह है कि बुराई के खात्मे के लिए बुराई के सोलह श्रृंगार किया जाना जरूरी है क्या?
दरअसल हम लकीर पीटने के आदि हो गए हैं। जबकि सच्चाई इससे बहुत परे है। सच बात तो यह है कि विजयादशमी पर्व हमारे भीतर छुपे बुराई रूपी रावण को स्वाहा करने का पुनीत अवसर है। इस दिन हम चाहें तो आत्म चिंतन के सारे पटों को एक साथ खोल सकते हैं। हमने साल भर में क्या खोया और क्या पाया? इस विषय पर आत्म विश्लेषण के लिए इससे अच्छा कोई और पर्व हो ही नहीं सकता। किन्तु खुद के भीतर छुपी बुराइयों को ढूंढने और ढूंढ ढूंढ कर जलाने के बजाय हम ठीक बैसे ही रावण दहन के परम्परागत पाखंड को पोषित कर रहे हैं जैसे पहाड़ पर लगी आग को बुझाने की गुहार करने वाला व्यक्ति खुद के पैरों तले लगी आग को नहीं देख पाता है।
इन्हीं नन्हे विचारों के साथ आप सभी मित्रों को विजयादशमी पर्व की ढेर सारी शुभकामनाएं।
(विशेष : भला हो कोरोना का, जिसने कई युगों पूर्व मारे गए रावण को जलने से बचा लिया, वरना मुझे वाकई बहुत दुख होता। क्योंकि एक प्रश्न मेरे लिए वर्षों से अनुत्तरित है कि त्रेतायुग में अंतिम संस्कार के बाद भी हम उसे पुतला बनाकर हर वर्ष दशहरे पर क्यों जलाते हैं?