"मजबूर मजदूर और दम तोड़ती इंन्सानियत
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आँखे भर आती है जब ,देखता हूँ इस मंजर को ,
भूखे मजदूर के सीने पर ,चलते हुए खंजर को।
दर्द बहुत है सीने में , पर सिसकिया नहीं निकलती है,
दूर बहुत है मंजिल, इसलिये धमनिया भी नहीं रुकती है ।
क्या करें वह बेवस है , कुछ आस लिए चलता है ,
मधुर सपने सजोंयें , मिलने की प्यास लिए चलता है।
बदकिस्मती उसकी देखो,, जो मौत बनके चली आती है ,
पहले थकाती है ,फिर सुलाती ,और अपने साथ ही लिये जाती है।
सड़क पर चल रहा था , गुनगुनाता ,हँसता बेपरवान,
निर्दयी नियति ने कुचल दिए ,उसके सब अरमान ।
हाल यह विचित्र है ,सब कुछ सचित्र है,
ना कोई किसी का दुश्मन, ना ही अब मित्र है ।
कोई सो रहा महल में ,कोई उलझ रहा झाड़ियों में
विधाता की मर्जी देखो ,कोई जुत रहा गाड़ीयों में।
चुपचाप चल रहे सब मिलकर, मशगूर थे सब बतियाने में '
बेरहम किस्मत की टक्कर से , इंसान मिल रहे माटी में।
किसी ने तपन से दम तोड़ा ,किसी ने गमन से दम तोड़ा है ,
किसी ने सोते से दम तोड़ा, किसी ने गम में दम तोड़ा है।
साहब जिससे गुजरती है ,उसे ही उसे पता चलता है ,
चूल्हा भी नहीं जला उनके घर, इसलिये भूखे ने दम तोड़ा है ।
कर लो अत्याचार , ये है बेबस और लाचार मजदूर की हताशा,
जब निकलेगी हाय, तो बचा भी ना पाएगा तुम्हें विधाता।
यह दर्द ऐसा है आदिवासी, सिसकियां भी नहीं निकलती ,
रोना हर कोई चाहता है , पर फफकियाँ भी नहीं निकलती
आज वही शख्स ,यादों की बारात लिये रोते हुये जा रहा ,
रूठ कर वो तुमसे कभी ना आने की, कसम खायें जा रहा
गुजारिश है आपसे ,मजदूर का सम्मान दिल से करो आदिवासी,
यह तो बुरे वक्त की बातें हैं ,ना खुद पर गुमान करो हे देशवासी I
यह वेवक्त का दौर है, इक दिन यह भी चला जायेगा,
तुम्हारे महल बनाने के लिये,फिर यही मजदूर आयेगा।
खून पसीने से तरबतर , जो आज यह बदहाल है,
कारण हो तुम्हीं इसका, यह बहुत बड़ा सवाल है ।
सुलझाना पाओगे तुम इसको, अब इसे प्रश्न ही रहने दो
जीओ तुम तो जी भरके, मगर इसे भी शुकून से जीने दो।
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🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹
प्रोफेसर रामकेश आदिवासी
सह आचार्य ,संस्कृत
राजकीय महाविद्यालय, गंगापुर सिटी
दूरभाष नंबर 9887 99 5480 ईमेल rkadivasi57@gmail.com
🌸🌸🌸👏👏👏🌸🌸🌸
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आँखे भर आती है जब ,देखता हूँ इस मंजर को ,
भूखे मजदूर के सीने पर ,चलते हुए खंजर को।
दर्द बहुत है सीने में , पर सिसकिया नहीं निकलती है,
दूर बहुत है मंजिल, इसलिये धमनिया भी नहीं रुकती है ।
क्या करें वह बेवस है , कुछ आस लिए चलता है ,
मधुर सपने सजोंयें , मिलने की प्यास लिए चलता है।
बदकिस्मती उसकी देखो,, जो मौत बनके चली आती है ,
पहले थकाती है ,फिर सुलाती ,और अपने साथ ही लिये जाती है।
सड़क पर चल रहा था , गुनगुनाता ,हँसता बेपरवान,
निर्दयी नियति ने कुचल दिए ,उसके सब अरमान ।
हाल यह विचित्र है ,सब कुछ सचित्र है,
ना कोई किसी का दुश्मन, ना ही अब मित्र है ।
कोई सो रहा महल में ,कोई उलझ रहा झाड़ियों में
विधाता की मर्जी देखो ,कोई जुत रहा गाड़ीयों में।
चुपचाप चल रहे सब मिलकर, मशगूर थे सब बतियाने में '
बेरहम किस्मत की टक्कर से , इंसान मिल रहे माटी में।
किसी ने तपन से दम तोड़ा ,किसी ने गमन से दम तोड़ा है ,
किसी ने सोते से दम तोड़ा, किसी ने गम में दम तोड़ा है।
साहब जिससे गुजरती है ,उसे ही उसे पता चलता है ,
चूल्हा भी नहीं जला उनके घर, इसलिये भूखे ने दम तोड़ा है ।
कर लो अत्याचार , ये है बेबस और लाचार मजदूर की हताशा,
जब निकलेगी हाय, तो बचा भी ना पाएगा तुम्हें विधाता।
यह दर्द ऐसा है आदिवासी, सिसकियां भी नहीं निकलती ,
रोना हर कोई चाहता है , पर फफकियाँ भी नहीं निकलती
आज वही शख्स ,यादों की बारात लिये रोते हुये जा रहा ,
रूठ कर वो तुमसे कभी ना आने की, कसम खायें जा रहा
गुजारिश है आपसे ,मजदूर का सम्मान दिल से करो आदिवासी,
यह तो बुरे वक्त की बातें हैं ,ना खुद पर गुमान करो हे देशवासी I
यह वेवक्त का दौर है, इक दिन यह भी चला जायेगा,
तुम्हारे महल बनाने के लिये,फिर यही मजदूर आयेगा।
खून पसीने से तरबतर , जो आज यह बदहाल है,
कारण हो तुम्हीं इसका, यह बहुत बड़ा सवाल है ।
सुलझाना पाओगे तुम इसको, अब इसे प्रश्न ही रहने दो
जीओ तुम तो जी भरके, मगर इसे भी शुकून से जीने दो।
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प्रोफेसर रामकेश आदिवासी
सह आचार्य ,संस्कृत
राजकीय महाविद्यालय, गंगापुर सिटी
दूरभाष नंबर 9887 99 5480 ईमेल rkadivasi57@gmail.com
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